है यह ख़लिश क्यों
पूछ चश्म-ए-दिल से
कया यही नज़ारे देखता तू
बचपन से हर ख़्वाब में ।

कल रहे न रहे
तेरी आम सी ज़िन्दगी
रख दिल में ख्वाइश
कि छोड़ जाऊं निशानी इस जहां में ।

है हालत जैसे बुझती शमा
कुसूर दें तो किसको
कुछ तेरी नाकामी
कुछ ज़ालिम ज़माना ।

मंज़ूर न होती बेबसी
अगर खुलता राज़ ज़िन्दगी का
शायद ख्यालों में हो तू उसकी
दस्तक दे मौजूदगी का ।